अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर दफ्तरों में कुछ नजारे आम होते हैं. महिला स्टाफ को गिफ्ट कूपन बांट दो या उनके लिए अच्छा सा लंच होस्ट कर दो. खास चैट सेशन का आयोजन कर दो या फिर जुंबा क्लास, मैराथन या योग सेशन. Happy Women's Day लिखी हुई टी-शर्ट या और कुछ नहीं तो गुलाब का फूल और चॉकलेट सही. लेकिन क्या महिला दिवस के दिन उन मुद्दों पर चर्चा हुई, जिनकी वजह से ये दिन अस्तित्व में आया.
आपके संस्थान में कितनी महिलाएं लीड रोल में हैं? कितनी महिलाएं मिडिल मैनेजमेंट से सीनियर पोजीशन पर पहुंच पाईं? क्या महिलाओं और पुरुषों को बराबर सैलरी मिलती है? क्या ऑफिस में क्रेच की सुविधा है या कामकाजी माताओं को वो किस तरह सपोर्ट करता है? क्या ऑफिस में फ्लेक्सिबल टाइमिंग या वर्क फ्रॉम होम का विकल्प है? या फिर, कोविड के साथ ये सुविधाएं भी हवा हो गईं और 'काम पर वापस आ जाओ', 'पूरी शिफ्ट करके जाओ' का फरमान जारी हो गया?
चलिए, इस महिला दिवस पर सिर्फ दिखावे या प्रतीकवाद से आगे बढ़ने का संकल्प करते हैं.
कई कंपनियां अब मेंटल हेल्थ, महिला स्वास्थ्य, फाइनेंशियल आजादी से जुड़े मुद्दों पर चर्चाएं करती हैं. ये काबिल-ए-तारीफ जरूर है, लेकिन जब महिलाएं काम पर वापस आती हैं, तो क्या उनके साथ काम करने वाले लोग और लाइन मैनेजर उनकी परेशानियां समझते हैं? यहां बात उन सभी परेशानियों की है जिनका सामना, महिलाएं बिना पुरुषों को बताए, चुपचाप करती हैं.
वैसे ये सिर्फ भारत का मुद्दा हो, ऐसा नहीं है.
चीन में, 8 मार्च को कई दफ्तरों में महिलाओं को आधे दिन की छुट्टी दी जाती है. इटली में सभी महिलाओं को मिमोसा ब्लॉसम नाम का फूल दिया जाता है और अमेरिका में तो पूरा महीना ही, वुमन हिस्ट्री मंथ के तौर पर मनाया जाता है. साथ ही, महिला दिवस पर खास सेल तो हर देश में होती ही है. बहुत सारी शॉपिंग होती है और ब्रैंड्स कमाते हैं तगड़ा मुनाफा!
कुछ कंपनिया ऐसी भी हैं जहां विविधता, हिस्सेदारी और सबको साथ लेकर चलने के सिद्धांतों को लागू करने के लिए प्रोग्राम चलाए जाते हैं. इन कंपनियों में सीनियर महिला लीडर, वर्कफोर्स में शामिल महिलाओं के साथ चर्चा करती हैं और अपने अनुभव बांटती हैं. युवा महिलाओं को प्रेरित करने के लिए ये एक बेहतरीन कदम हैं, लेकिन क्या इन बातों को और इन मुद्दों को सुनने और समझने की कोशिश की जा रही है? उन मुद्दों को जो संस्थान में मौजूद महिलाओं की परेशानी की वजह हैं. क्या इन मुद्दों को जाना, समझा और ये पता लगाया जा रहा है कि उनकी ग्रोथ के लिए संस्थान को बेहतर कैसे बनाया जा सकता है? महिलाओं के करियर में क्या रुकावटें हैं, क्या इस पर उनसे बात की जा रही है? क्या उनकी बात सुनी जा रही है?
महिलाओं को बराबरी का मौका देने के मामले में ऑस्ट्रेलिया से एक अच्छी खबर मिली है. ऑस्ट्रेलिया की वित्त मंत्री केटी गैलगर ने संसद में एक नया बिल पेश किया है. इस बिल के तहत 100 से ज्यादा लोगों को नौकरी देने वाली कंपनियों को, महिलाओं और पुरुषों की सैलरी के बीच अंतर पर डेटा पब्लिश करना होगा. वर्कप्लेस जेंडर इक्वॉलिटी एजेंसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 में ऑस्ट्रेलिया में महिलाओं और पुरुषों की सैलरी के बीच ये अंतर 13.4% था.
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 के लेटेस्ट डाटा के मुताबिक महिलाओं और पुरुषों की सैलरी में अंतर के मामले में भारत, 156 देशों की लिस्ट में 140वें पायदान पर है. रिपोर्ट में सामने आया है कि भारत में महिलाओं की औसत सैलरी, पुरुषों की सैलरी के सिर्फ 23.3% के बराबर है. क्या आपके संस्थान में इसको लेकर कोई कदम उठाया गया है? अगर नहीं, तो इस पर काम करना ही लक्ष्य होना चाहिए.
महिला दिवस का मकसद होना चाहिए महिलाओं के लिए संस्थानों और काम करने की सभी जगहों को बेहतर बनाना. अगर सिर्फ महिला दिवस के दिन ही कोई वर्कशॉप या करियर डेवेलपमेंट सेशन कराया जा रहा है, तो इससे कुछ हासिल नहीं होगा. ऐसे सेशन कंपनी के सालाना प्लान का हिस्सा होने चाहिए. मंदी के आते ही कंपनियों ने विविधता, हिस्सेदारी और सबको साथ लेकर चलने को (DEI) बढ़ावा देने के लिए बनाए गए प्रोग्राम और वर्कशॉप के बजट में कटौती करना शुरू कर दिया है. इसलिए, जरूरी है कि कंपनियां को अब ये तय करना होगा कि वो किस तरह अपनी महिला कर्मचारियों की आगे बढ़ने में मदद करेंगे और इसको प्राथमिकता भी देनी होगी.
चलिए, महिला दिवस के मौके पर आपको इस मुद्दे से जुड़ी दुनिया भर की कुछ खबरों और आंकड़ों से भी रुबरू कराते हैं.
भारत में वर्कफोर्स से महिलाएं गायब होती जा रही हैं. 2005 में जहां 32% महिलाएं, वर्कफोर्स का हिस्सा थीं, 2021 में ये भागीदारी घटकर 19% रह गई है.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की नई रिपोर्ट के मुताबिक 15 से 49 साल की शादीशुदा महिलाओं की संख्या में से सिर्फ 32% ही नौकरी करती हैं.
भारत में सिर्फ 15% महिलाएं ऊंचे पदों पर हैं.
कंपनियों के बोर्ड में सिर्फ 17.1% महिलाएं शामिल हैं.
कोविड के बाद 17% महिलाओं की नौकरी चली गई और अब भी उन्हें नौकरी से निकाला जा रहा है.
85% शादीशुदा महिलाएं कहती हैं कि अपनी कमाई को कैसे खर्च करना है वो इसका फैसला या तो खुद या अपने पति के साथ मिलकर करती है.
दुनियाभर में महिलाएं अपने करियर और घर संभालने के बीच एक संतुलन बिठाने के बीच झूल रही है.
महिलाओं को माइक्रोएग्रेशन और उत्पीड़न का सामना पहले से भी ज्यादा करना पड़ रहा है.
मैटरनिटी के बाद, महिलाएं पुरुषों की रफ्तार से आगे नहीं बढ़ पा रहीं.
हैं ना ये चौकाने वाले आंकड़े. लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं है. चलिए कुछ खबरों पर भी नजर डालते हैं.
दक्षिण कोरिया में महिलाएं आंदोलन पर जाने को मजबूर है क्योंकि उनकी भूमिका बस बच्चा पैदा करने की नहीं है. 65% महिलाएं बच्चे पैदा नहीं करना चाहतीं और वे शादी भी नहीं करना चाहतीं. ये पितृसत्ता के खिलाफ उनकी जंग का एक तरीका है.
जापान, दुनिया में सबसे कम फर्टिलिटी रेट वाले देशों में से एक हैं. इस देश में महिलाएं आर्थिक और सामाजिक वजहों से देर से शादी करना या शादी और बच्चे न करने का रुख कर रही है. इन कुछ कारणों में चाइल्डकेयर के लिए किफायती सुविधा मौजूद न होना और वर्कफोर्स में महिलाओं के लिए कम मौके उपलब्ध होना शामिल हैं. इटली और स्पेन में भी महिलाएं बिना शादी और बच्चों के जिंदगी गुजारने के फैसले से खुश हैं.
WHO की 2021 की एक स्टडी के मुताबिक, दुनिया भर और भारत में भी, हर 3 में से 1 महिला ने लैंकिग आधार पर हिंसा का सामना कम से कम एक बार तो किया ही है, फिर चाहे वो सेक्शुअल हो, भावनात्मक हो या मनोवैज्ञानिक. इसके अलावा, शरणार्थियों और विस्थापित लोगों की कुल संख्या में 80% महिलाएं ही हैं.
इससे साफ है कि महिला दिवस पर इस प्रतीकवाद को खत्म करने का समय आ गया है. महिलाओं की हिस्सेदारी और सुरक्षा को लेकर प्रतिबद्धता जरूरी है. महिलाओं और पुरुषों के बीच भेदभाव एक गंभीर समस्या है, जो सिर्फ एक दिन में या एक दिन जश्न मनाकर हल नहीं होगी.