कर्नाटक की जनता ने अपना फैसला सुना दिया है, कांग्रेस को इस बार सत्ता की चाबी पूर्ण बहुमत के साथ सौंप दी गई है और BJP को सत्ता विरुद्ध लहर का सामना करना पड़ा है. लेकिन इन दो पार्टियों की हार-जीत के अलावा जिसने बहुत कुछ खोया है, वो है जनता दल (सेक्युलर)-यानी JDS, जो नतीजों से पहले खुद को किंगमेकर नहीं बल्कि किंग बनने के दावे कर रही थी, अब वो 'किंगमेकर' के लायक भी नहीं बची है.
224 सीटों वाली कर्नाटक विधानसभा में कांग्रेस को रुझानों में बहुमत के जादुई आंकड़े 113 से कहीं ज्यादा सीटें मिलती दिख रही हैं और BJP का रथ बहुमत से काफी पहले रुक गया, जबकि JDS के खाते में इतनी सीटें नहीं हैं कि वो कोई दावा पेश कर सके, अब अगर BJP और JDS कांग्रेस का खेल खराब करने साथ आते भी हैं तब भी वो बहुमत का आंकड़ा नहीं हासिल कर सकते.
दरअसल, आपदा में अवसर तलाशने वाली एच डी कुमारस्वामी की JDS किंगमेकर की भूमिका में तभी आ सकती थी, जब कर्नाटक चुनाव के नतीजे साफ नहीं होते, यानी त्रिशंकु विधानसभा बनती. तब कांग्रेस और BJP दोनों ही पार्टियां JDS के दरवाजे पर खड़ी होंती है, और JDS मोलभाव की स्थिति में होती. मगर कर्नाटक में इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के बीच दो दशकों से कर्नाटक में राजनीतिक गुरुत्वाकर्षण का केंद्र बनी JDS के लिए राजनीतिक समीकरण बिल्कुल बिगड़ गए हैं. ठीकठाक सीटें जीतने के बाद भी उसकी उपलब्धि के फिलहाल कोई मायने नहीं बचते हैं.
2019 से ही सत्ता से दूर JDS ने अपना राजनीतिक सफर 1999 में शुरू किया था, तब से लेकर अबतक कर्नाटक में वो सिर्फ दो ही बार सत्ता की कुर्सी पर बैठी, लेकिन दोनों ही बार वो कभी अपने बूते सरकार नहीं बना सकी. एक बार कांग्रेस के साथ और एक बार उसे BJP के सहारे सत्ता की चाबी हाथ लगी.
10 साल तक सत्ता से बाहर रहने के बाद साल 2018 में एच डी कुमारस्वामी ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई थी. 2018 में कांग्रेस को 80 सीटें मिलीं थी, जबकि JDS को सिर्फ 37 सीटें, और भारतीय जनता पार्टी 104 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन कांग्रेस ने JDS के साथ मिलकर सरकार बनाई और JDS के मुकाबले दोगुनी सीट होने के बावजूद मुख्यमंत्री की कुर्सी एच डी कुमारस्वामी को सौंप दी, लेकिन ये सरकार सिर्फ 14 महीने की चल सकी. इस गठबंधन को शुरुआत से ही एक मजबूरी में की गई डील माना गया.
राजनीति में आने से पहले कन्नड़ फिल्मों में प्रोड्यूसर और डिस्ट्रीब्यूटर एच डी कुमारस्वामी राजनीति की स्क्रिप्ट भी भली भांति समझते हैं, पिता से विरासत में मिली राजनीति का असर उन पर ऐसा था कि कई मौकों पर उन्होंने अपने पिता की भी नहीं सुनी.
कांग्रेस से पहले यही स्क्रिप्ट JDS ने BJP के साथ भी प्ले की थी. 2004 के विधानसभा चुनाव के बाद JDS और कांग्रेस ने मिलकर कर्नाटक में सरकार बनाई. उस समय कांग्रेस के पास 65 और JDS के पास 58 सीटें थी और 79 सीटें BJP के खाते में आईं थीं. लेकिन 2006 में कुमारस्वामी ने कांग्रेस सरकार से समर्थन वापस लेकर सरकार को गिरा दिया और अपने MLA लेकर BJP के साथ खड़े हो गए. ये कदम उठाते समय कुमारस्वामी ने अपने पिता एच डी देवेगौड़ा की भी बात नहीं सुनी और पार्टी तोड़कर BJP के साथ चले गए. 126 विधायकों के साथ BJP और JDS ने मिलकर सरकार बनाई. जनवरी 2006 में कुमारस्वामी को भारतीय जनता पार्टी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया और बी एस येदियुरप्पा को उनका डिप्टी बनाया गया. ये गठबंधन भी मजबूरियों की हांडी पर चढ़ा था, जो ज्यादा दिन तक नहीं चला और अक्टूबर 2007 में सरकार गिर गई.
उस समय BJP और JDS के बीच जबरदस्त कड़वाहट बढ़ी थी, क्योंकि दोनों पार्टियों के बीच 20 महीने के 'पावर शेयरिंग' समझौते पर सरकार बनाई गई थी, मतलब शुरुआती 20 महीने कुमारस्वामी कुर्सी पर बैठेंगे और अगले 20 महीने येदियुरप्पा सत्ता संभालेंगे. कुमारस्वामी 4 फरवरी, 2006 को राज्य के मुख्यमंत्री बने और 8 अक्टूबर, 2007 तक सत्ता की चाबी अपने पास रखी, लेकिन जब सत्ता ट्रांसफर करने का समय आया तो वो उस करार से मुकर गए और BJP को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया. नतीजे ये हुआ कि कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लग गया और दोबारा चुनाव कराने पड़े, और तब BJP अपने दम पर सत्ता में वापस आई.
दरअसल, राजनीति में JDS का इतिहास पाला बदलने का ही रहा है, लेकिन कहते हैं न कि राजनीति में हमेशा न तो कोई दोस्त होता है न कोई दुश्मन. जिस कर्नाटक में 1985 के बाद से कोई भी राजनीतिक पार्टी लगातार सत्ता में वापसी नहीं कर पाई, यहां सत्ता का जोड़तोड़ हमेशा चलता रहा है, लेकिन JDS किसी न किसी तरह से सत्ता शक्ति के करीब रही है.