'हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ'. पिछले दिनों देश के अर्थ जगत में ये मुहावरा चर्चा में आया. मुहावरा या टर्म जो भी कहें, ये नया नहीं था. 70 के दशक में इसे गढ़ा गया था. अभी चर्चा में कुछ इस तरह आया कि RBI के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने इसका इस्तेमाल किया. इस्तेमाल ऐसा कि उसके बाद उन्हें भारी आलोचना झेलनी पड़ी. आलोचना का स्तर ये था कि देश के सबसे बड़े बैंक SBI की रिसर्च रिपोर्ट ने इसे 3 भारी-भारी शब्दों के साथ खारिज कर दिया. SBI रिसर्च रिपोर्ट ने कहा कि राजन का ये कहना दुर्भाग्यपूर्ण, पक्षपात करने वाला और अपरिपक्व है. SBI की रिपोर्ट के मुताबिक भारत की फ्यूचर GDP का ग्रोथ अनुमान 7% के करीब है जो कि भारत जैसी इकोनॉमी के लिए एक अच्छी ग्रोथ है.
मामला ये है कि देश की तीसरी तिमाही के GDP ग्रोथ के आंकड़े आए. आंकड़ों के मुताबिक ग्रोथ की रफ्तार इस तिमाही में घटी थी. वित्त वर्ष 2023 की तीसरी तिमाही यानी अक्टूबर-दिसंबर (Q3FY23) के दौरान GDP ग्रोथ 4.4% दर्ज की गई. जबकि इसी वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही (Q2FY23) में GDP ग्रोथ 6.3% थी.
रघुराम राजन एक मीडिया संस्थान से बात कर रहे थे. बातचीत में उन्होंने कहा कि भारत की कम होती GDP ग्रोथ चिंता का विषय है. इसी चर्चा में राजन ने ये कह दिया कि भारत 'हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ' (Hindu Rate of Growth) के बेहद करीब जाता हुआ नजर आ रहा है.
उन्होंने प्राइवेट सेक्टर की तरफ से निवेश में कमी, बढ़ती हुई ब्याज दरों और धीमी पड़ती ग्लोबल ग्रोथ को इसकी वजह बताया था. SBI रिसर्च रिपोर्ट ने उनकी इस बात का खंडन किया और कहा कि सिर्फ एक तिमाही के आंकड़ों को लेकर ये कहना बिल्कुल भी ठीक नहीं होगा.
खैर, ये तो वो फसाद थी जिसने एक पुराने मुहावरे को वापस जिंदा कर दिया. वापस लौटते हैं मुहावरे पर यानी 'हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ'. दौर था आजादी के बाद के भारत का. इकोनॉमिक ग्रोथ की रफ्तार लंबे अरसे तक धीमी रही. 1950 से लेकर 1980 तक आर्थिक विकास की दर 3.5% से 4% के करीब रही.
उस दौर में एक बड़े अर्थशास्त्री हुए जो दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर भी थे, नाम था राज कृष्ण. 1978 में इन्होंने लंबे समय से धीमी चल रही ग्रोथ की रफ्तार के लिए पहली बार 'हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ' का इस्तेमाल किया. उन्होंने इकोनॉमी की ग्रोथ की धीमी रफ्तार को प्रति व्यक्ति आय और बढ़ती जनसंख्या के साथ रखते हुए कहा था कि भारत की ग्रोथ 'हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ' के हिसाब से हो रही है.
साफ तौर पर इस मुहावरे का हिंदू धर्म से कोई लेना देना नहीं था लेकिन इस शब्द के इस्तेमाल के विरोध में कई अर्थशास्त्रियों ने आवाज भी उठाई. फिर दौर आया 1991 के इकोनॉमिक रिफॉर्म का. चीजें बदलीं, इकोनॉमिक ग्रोथ की रफ्तार भी बदली और ये मुहावरा धीरे-धीरे लोगों के दिलो-दिमाग से निकल गया.
हालांकि इस मुहावरे को वैसे भी कभी वैश्विक स्तर पर स्वीकार नहीं किया गया. कई अर्थशास्त्रियों ने इस मुहावरे में हिंदू शब्द के इस्तेमाल के अलग-अलग मतलब निकाले लेकिन वक्त के साथ सारी परिभाषाएं खारिज होती गईं.