अमेरिका में सिलिकॉन वैली बैंक और सिग्नेचर बैंक डूबने के बाद,इसकी आंच यूरोप तक भी पहुंची, क्रेडिट सुईस को बचाने के लिए UBS ने हाथ बढ़ाया है, लेकिन इस बात की गारंटी अब भी नहीं है कि बैंकिंग सिस्टम की समस्या को यहीं रोक लिया गया है.
इन बैंकों के डूबने का संक्रमण कहीं दूसरे बैंकों पर न पड़े और अगर पड़े भी तो उस परिस्थिति को संभालने के लिए क्या तैयारियां हैं, इसी को लेकर दुनिया के 6 देशों ने मिलकर एक साथ एक प्लान बनाया है. ग्लोबल फाइनेंशियल सिस्टम में बढ़ते तनाव को देखते हुए फेड समेत 6 बैंकों ने लिक्विडिटी को बनाए रखने के लिए US डॉलर स्वैप एग्रीमेंट या 'स्वैप लाइन एग्रीमेंट' किया है. यानी सिस्टम में डॉलर की कमी होने पर ये 6 सेंट्रल बैंक सिस्टम में डॉलर की कमी को पूरा करेंगे.
इन 6 बैंकों में अमेरिका के फेडरल रिजर्व के अलावा, बैंक ऑफ कनाडा, बैंक ऑफ इंग्लैंड, बैंक ऑफ जापान, यूरोपियन सेंट्रल बैंक और स्विस नेशनल बैंक शामिल हैं. इस एग्रीमेंट का सीधा सरल सा मतलब ये है कि अगर बैंकिंग सिस्टम में लिक्विडिटी की कमी है तो वो इसको पूरा करता है. इससे ग्लोबल फंडिंग मार्केट्स पर पड़ रहा दबाव कम होता है, और होम लोन, बिजनेस और दूसरे तमाम तरह के लोन बांटने के लिए बैंकों के पास मुहैया हो जाता है.
इस डील के तहत, बैंकों को अगर लिक्विडिटी की जरूरत है तो वो उन्हें रोजाना मिल सकेगी, पहले ये वीकली आधार पर मिलता है. यानी बैंकों को रोजाना 7 दिन के लिए फंड मिल जाएंगे, ताकि उन्हें फंड की कमी से उनके डूबने की आशंका न रहे. अमेरिकी सेंट्रल बैंक फेड आमतौर पर ऐसी व्यवस्था उस समय करता है जब डॉलर की किल्लत हो जाती है.
मतलब ये कि अगर स्विस बैंकों को डॉलर की जरूरत है तो वो ओपन मार्केट से उधार लेने की बजाय सीधे स्विस नेशनल बैंक के पास जाएगा, और ये अमेरिकी फेडरल रिजर्व बैंक से उधार लेगा और बैंकों को दे देगा.
ऐसे कनाडा, जापान, अमेरिका और इंग्लैंड के बैंक भी कर सकेंगे. और ये इन्हें ये फंडिग डेली बेसिस यानी रोजाना मिल सकेगी, पहले ये वीकली था. ऐसी व्यवस्था साल 2008 की मंदी में भी की गई थी और कोविड के दौरान साल 2020 में भी की गई थी. बैंक ऑफ इंग्लैंड का कहना है कि ये व्यवस्था कम से कम अप्रैल के अंततक तक चालू रह सकती है.