ADVERTISEMENT

क्यों घर बैठ गए विदेश जाने वाले कम पढ़े-लिखे मजदूर?

बीते दो सालों में दूसरे देशों में रह रहे मजदूरों की संख्या बढ़ी है लेकिन अब भी यह 2014 के मुकाबले कम है.
NDTV Profit हिंदीविश्वनाथ नायर
NDTV Profit हिंदी04:31 PM IST, 02 Dec 2022NDTV Profit हिंदी
NDTV Profit हिंदी
NDTV Profit हिंदी
Follow us on Google NewsNDTV Profit हिंदीNDTV Profit हिंदीNDTV Profit हिंदीNDTV Profit हिंदीNDTV Profit हिंदीNDTV Profit हिंदीNDTV Profit हिंदीNDTV Profit हिंदीNDTV Profit हिंदीNDTV Profit हिंदी

नौकरी के लिए विदेश जाने का तांता लगा रहता था. दक्षिण भारत के राज्य केरल, तमिलनाडु इसमें आगे रहा करते थे. मगर, अब स्थिति बदल गयी है. जो विदेश में थे, घर लौटने लगे हैं. यहीं रोजगार करने लगे हैं. कमाई का वह फर्क भी मिट गया है जो विदेश और स्वदेश में हुआ करता था. लेकिन, ऐसा देश के सभी हिस्सों में नहीं है. दक्षिण भारतीय राज्यों की जगह अब यूपी-बिहार ले रहे हैं. अब देश से माइग्रेट करने का सेंटर यानी उत्प्रवास केंद्र यही राज्य बन रहे हैं.

केरल के शांतिप्रिय पलक्कड़ गांव में 39 साल का बीजू 8 साल बाद 2020 में लौट आया. यह उसका पैतृक गांव है. दुबई में उसने पहले टैक्सी ड्राइवर के तौर पर काम किया. फिर, शॉपिंग मॉल में काम करने लगा. दुनिया के बाकी हिस्सों की तरह दुबई में भी रिटेल बिजनेस का कारोबार सिमट गया. बीजू और उसके बहुत सारे भारतीय साथी छंटनी का शिकार हो गए.

नौकरी की तलाश में कुछ हफ्ते बीते थे कि बीजू के साले ने प्रस्ताव रखा कि अगर वह लौटना चाहे तो एक बड़े ज्वैलरी स्टोर चेन में काम मिल सकता है. बीजू ने वक्त बर्बाद नहीं किया. बीजू ने बताया, “हमारे अधिकतर दोस्त इसी तरह लौट आए”. उसने आगे बताया, “वेतन वहां (दुबई में) बढ़ नहीं रहा था और अगर आप यहां के वेतन से तुलना करें तो बहुत फर्क नहीं पड़ रहा था. इसलिए लौट जाने में ही भलाई महसूस हुई”.

कोविड से विदेश जाने वाले मजदूरों की संख्या घटी

अल्प प्रशिक्षित भारतीय मजदूरों में से हर किसी की कहानी बीजू जैसी ही ही है. ये लोग विदेश में सुनहरे भविष्य के वादे से खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं. ऐसा तब है जब अपने देश में हर साल लाखों लोग वर्क फोर्स में आ रहे हैं और इस हिसाब से नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं.

विदेश मंत्रालय की ओर से दिए गए सालाना आंकड़ों के मुताबिक 2014 में 8 लाख से ज्यादा मजदूरों ने इमिग्रेशन क्लियरेंस के लिए आवेदन किया था. यह संख्या कोविड-19 महामारी से ठीक पहले 2019 में घटकर करीब 82 हजार रह गयी थी.

बीते दो सालों में फिर बढ़ा चलन

विदेश मंत्रालय के मुताबिक अल्प प्रशिक्षित मजदूरों को काम की तलाश में विदेश जाने के लिए दी जाने वाली सरकारी मंजूरी को इमिग्रेशन क्लियरेंस कहते हैं. मौजूद समय में 18 देशों के लिए ऐसी मंजूरी की जरूरत होती है.

बीते दो सालों में दूसरे देशों में रह रहे मजदूरों की संख्या बढ़ी है लेकिन अब भी यह 2014 के मुकाबले कम है. विदेश मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2022 के पहले नौ महीनों में 2.77 लाख मजदूरों को इमिग्रेशन क्लियरेंस दी गयी है.

अब यूपी-बिहार से विदेश जा रहे मजदूर

नौकरी के लिए विदेश जाने वाले अल्प प्रशिक्षित मजदूरों की संख्या में सिर्फ गिरावट का यह मसला नहीं है. जिन इलाकों से ये मजदूर पलायन करते थे उसमें भी बदलाव आया है. आम तौर पर केरल और तमिलनाडु विदेश जाने वाले अल्प प्रशिक्षित मजदूरों का हब हुआ करते थे, लेकिन अब उनकी जगह उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और राजस्थान ने ले ली है.

विदेश मंत्रालय के आंकड़े (जनवरी 2021 - जुलाई 2022)

  • 3.22 लाख भारतीय मजदूरों ने इमिग्रेशन क्लियरेंस के लिए आवेदन किए.

  • इनमें से 1.02 लाख उत्तर प्रदेश से और 55,607 बिहार से थे.

  • राजस्थान और पश्चिम बंगाल से 25-25 हजार आवेदन आए.

  • केरल से 18,815 और तमिलनाडु में 19,539 लोगों ने आवेदन किए.

दक्षिण भारत में चलन घटा है

एक रिक्रूटमेंट एजेंसी के मुताबिक दक्षिण भारतीय राज्यों से बीते कुछ सालों में अल्प प्रशिक्षित मजदूरों की संख्या तेजी से घटी है. पहले विदेश में नौकरी की उम्मीद में कठिन हालातों और यहां तक कि बेसिक सैलरी से भी मजदूर समझौता कर लिया करते थे. लेकिन, अब शिक्षा का स्तर सुधरने और स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा होने से हालात बदले हैं.

“आम तौर पर 20 से 34 साल के लोग विदेश पलायन करते हैं...इस वक्त यूपी, बिहार, राजस्थान की डेमोग्राफी इस लिहाज से बहुत उपयुक्त है.”
एस ईरूदय राजन, चेयरमैन, इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ माइग्रेशन एंड डेवलपमेंट

नेपाल, बांग्लादेश के मजदूरों से चुनौती

परंपरागत रूप से विदेश जाने वाले मजदूरों के लिए आकर्षण का केंद्र रहे संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशो में भी वेतन तेजी से घटा है. इस वजह से यहां आने वालों की तादाद घटी है. पड़ोसी देशों से भी अब कंपटीशन मिलने लगा है. राजन का कहना है कि मजदूरी के मामले में उत्तर भारतीय लोगों को अब नेपाल और बांग्लादेश के मजदूरों से मुकाबलना करना पड़ रहा है. ये बहुत कम वेतन पर भी काम करने को तैयार हो जाते हैं. इस वजह से भारतीय मजदूरों पर इन्हें तवज्जो मिल जाती है.

भारत जैसे देशों के लिए नौकरी के लिए विदेश जाने वाले मजदूरों का घट जाना अच्छा नहीं कहा जा सकता. औसतन 66 लाख भारतीय हर साल (2011-16 के दौरान) वर्क फोर्स में शामिल होते हैं. किसी भी देश के लिए यह बहुत मुश्किल काम है कि इतने बड़े स्तर पर वह रोजगार उपलब्ध करा सके. सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह मजदूरों को कुशल बनाएं ताकि वे दूसरे देशों में काम पा सकें.

NDTV Profit हिंदी
फॉलो करें
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT